उत्तराखंड अल्पसंख्यक शिक्षा विधेयक 2025 पर विवाद: संवैधानिक अधिकारों को लेकर उठने लगे सवाल

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देहरादून। उत्तराखंड सरकार द्वारा प्रस्तावित “उत्तराखंड अल्पसंख्यक शिक्षा विधेयक 2025” को लेकर राज्य में राजनीतिक और सामाजिक हलकों में बहस तेज हो गई है। विधेयक के प्रावधानों को लेकर यह आशंका जताई जा रही है कि यह कानून अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता और धार्मिक स्वतंत्रता को सीमित कर सकता है।

जानकारी के अनुसार, विधेयक में मदरसों और अन्य अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों के लिए पंजीकरण, पाठ्यक्रम और प्रशासनिक मानकों से संबंधित नए नियम शामिल किए गए हैं। विरोध करने वाले समुदायों का कहना है कि यह कदम संविधान के अनुच्छेद 25 से 30 तक दिए गए मौलिक अधिकारों के विपरीत है, जो अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षा व्यवस्था स्वतंत्र रूप से संचालित करने की गारंटी देते हैं।

खुर्शीद अहमद सिद्दीकी

देहरादून के शिक्षाविद और समाजसेवी खुर्शीद अहमद सिद्दीकी ने कहा, “संविधान का अनुच्छेद 30(1) स्पष्ट रूप से कहता है कि अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षण संस्थान स्थापित करने और उनका संचालन करने का अधिकार है। यदि राज्य इन संस्थानों के आंतरिक प्रबंधन या धार्मिक शिक्षण में हस्तक्षेप करता है, तो यह संवैधानिक भावना के विपरीत होगा।”

उन्होंने आगे कहा कि धार्मिक शिक्षण को सामान्य स्कूली शिक्षा से प्रतिस्थापित करने का कोई भी प्रयास धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) पर सीधा प्रहार माना जाएगा। भारत का धर्मनिरपेक्ष ढांचा यह सुनिश्चित करता है कि राज्य सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखे और किसी को भी अपने विश्वास या शिक्षा प्रणाली से वंचित न करे।

वहीं, सरकारी सूत्रों का कहना है कि इस विधेयक का उद्देश्य “शिक्षा की गुणवत्ता और पारदर्शिता” सुनिश्चित करना है, न कि किसी समुदाय के अधिकारों में हस्तक्षेप करना। एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “राज्य सरकार चाहती है कि सभी शिक्षण संस्थान, चाहे वे किसी भी समुदाय से संबंधित हों, छात्रों को आधुनिक और व्यावहारिक शिक्षा उपलब्ध कराएँ।”

कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यह विधेयक अल्पसंख्यक संस्थानों के प्रशासनिक ढांचे या धार्मिक पाठ्यक्रम में दखल देता है, तो इसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट पहले ही T.M.A. Pai Foundation (2002) और St. Stephen’s College (1992) जैसे मामलों में यह स्पष्ट कर चुका है कि राज्य अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों को सीमित नहीं कर सकता।

सामाजिक संगठनों ने मांग की है कि सरकार विधेयक को लागू करने से पहले इसके प्रावधानों को सार्वजनिक करे और संबंधित समुदायों से संवाद स्थापित करे। उनका कहना है कि पारदर्शिता और परामर्श के बिना ऐसा कानून राज्य के सांप्रदायिक सौहार्द और संविधानिक मूल्यों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

 

देहरादून। उत्तराखंड में मदरसा बोर्ड अब इतिहास बनने जा रहा है। राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह (सेनि.) ने उत्तराखंड अल्पसंख्यक शिक्षा विधेयक, 2025 को मंजूरी दे दी है। गौरतलब है कि तीन दिन पहले ही मदरसा बोर्ड अध्यक्ष मुफ्ती समून कासमी ने राज्यपाल से मुलाकात की थी। विधेयक लागू होने के बाद, प्रदेश में संचालित सभी मदरसों को उत्तराखंड अल्पसंख्यक शिक्षा प्राधिकरण से मान्यता प्राप्त करनी होगी और उन्हें उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा परिषद (उत्तराखंड बोर्ड) से संबद्ध होना पड़ेगा।

 

तीन दिन पहले राज्यपाल गुरमीत सिंह से मुलाकात के दौरान मदरसा बोर्ड अध्यक्ष मुफ्ती समून कासमी

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस निर्णय को राज्य में शिक्षा व्यवस्था को समान और आधुनिक बनाने की दिशा में ऐतिहासिक कदम बताया। उन्होंने कहा कि जुलाई 2026 सत्र से सभी अल्पसंख्यक विद्यालयों में राष्ट्रीय पाठ्यक्रम (NCF) और नई शिक्षा नीति (NEP-2020) के तहत शिक्षा दी जाएगी।

सीएम धामी ने कहा, “सरकार का उद्देश्य है कि प्रदेश का हर बच्चा — चाहे वह किसी भी वर्ग या समुदाय का हो — समान शिक्षा और समान अवसरों के साथ आगे बढ़े।” इस निर्णय के साथ उत्तराखंड देश का पहला ऐसा राज्य बन जाएगा, जहां मदरसा बोर्ड को समाप्त कर अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों को मुख्यधारा की शिक्षा प्रणाली से जोड़ा जाएगा।