देहरादून। इसी सप्ताह 11 नवंबर को उत्तराखंड ने अपनी 25 वर्षगांठ मनाई है। सरकार के साथ ही विपक्ष ने भी पूरे जोश और उत्साह से रजत जयंती को सेलिब्रेट किया। सरकार द्वारा आयोजित रजत जयंती के मुख्य कार्यक्रम में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी पहुंचे और उन्होंने प्रदेश के लिए कई घोषणाएं भी की। परन्तु उत्तराखंड की प्रमुख समस्याओं में से एक बड़ी समस्या पलायन को रोकने के लिए कोई ठोस योजना सामने नही आई।

पिछले 25 वर्षों में कांग्रेस भाजपा दोनों ही दलों की सरकारें प्रदेश में रही लेकिन इस मामले में कोई भी ठोस योजना धरातल पर नहीं उतर सकी और पलायन लगातार जारी है। मूलभूत सुविधाओं के अभाव में गांव के गांव खाली हो गए हैं। अब ताजा मामला बागेश्वर जिले से सामने आया है। जिले का चौनी गांव अब पूरी तरह से वीरान हो गया है, जहां अंतिम रहवासी परिवार ने भी गांव छोड़ दिया है। कभी 25 परिवारों का घर रहा यह गांव धीरे-धीरे उजड़ता गया और वर्ष 2025 तक यह पूर्ण रूप से खाली हो गया।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार बागेश्वर जिला मुख्यालय से महज 23 किलोमीटर दूर बसे चौनी गांव में आज खामोशी इतनी गहरी है कि अपने कदमों की आवाज भी अजनबी लगती है। कभी खुशहाल बाखली थी। सुबह-शाम चूल्हों से धुआं उठता था। बच्चों की हंसी गूंजती थी। खेतों में हल चलाए जाते थे।
आज यह गांव पूरी तरह वीरान है। उत्तराखंड राज्य स्थापना के 25वें साल में यहां रहने वाला अंतिम परिवार भी दरवाजे पर ताला लगाकर चला गया है।चमड़थल ग्राम पंचायत का यह गांव कभी 25 परिवारों से आबाद हुआ करता था। वर्ष 2015 तक यह संख्या 15 पर आ गई। वर्ष 2025 में गांव की आखिरी रहवासी महिला भी मजबूरी में गांव छोड़ गई।
घरों के आंगन में उगीं झाड़ियां साफ कह रही हैं कि सरकारों की अनदेखी के चलते पलायन के दैत्य ने इस गांव को खोखला कर दिया है। खुले आकाश के नीचे लटकते केले के फल और सूखते गेंदे के फूल बीते दिनों की बसासत का एहसास कराते हैं।करीब 550 नाली उपजाऊ जमीन अपनों के लाैटने के इंतजार में पड़ी है।
कोई आए, हल चलाए, बीज डाले पर कोई नहीं आता। पुराने नक्काशीदार मकान और नए बने लिंटर वाले घर दोनों ही बंद पड़े हैं। कुछ खंडहर हो चुके हैं। बाकी खंडहर होने के कगार पर हैं। सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतें न मिलने के कारण लोग एक-एक कर गांव छोड़ते चले गए। आज चौनी अपने खाली आंगनों में नीति-निर्धारकों की उदासीनता पर सवाल उठा रहा है। चौनी गांव के इस हालात के लिए गांव से लेकर देश और प्रदेश की नई-पुरानी सरकारें जिम्मेदार हैं।

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य बंशीधर जोशी बताते हैं कि इसी गांव में रहते हुए मैं पूरे क्षेत्र का पहला स्नातक बना था। सुविधाओं की कमी के कारण गांव छोड़ना पड़ा। सुविधाओं के लिए आज भी मेरा संघर्ष जारी है।
स्थानीय निवासी गणेश चन्द्र का कहना है कि लंबे समय तक गांव में सुविधाएं मिलीं नहीं तो लोग बाहर जाने लगे। कोई दिल्ली में है तो कोई लखनऊ और देहरादून में। पिछले साल तक हमारा परिवार गांव में रहता था। अब हमने भी गांव छोड़कर सड़क के नजदीक मकान बना लिया है।
गांव से पलायन का मुख्य कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, रोजगार की सुविधाओं का न होना है। सुविधाएं मिलतीं तो ग्रामीण कीवी, अदरक, माल्टा, नारंगी, हल्दी की खेती, मछली पालन कर आजीविका चला सकते थे।
बागेश्वर के मुख्य विकास अधिकारी आरसी तिवारी का कहना है कि पलायन रोकथाम योजना के तहत पलायन वाले गांवों का चयन कर वहां रोजगारपरक योजनाएं चलाई हैं। कुछ गांवों में रिवर्स पलायन भी हुआ है। चौनी गांव के खाली होने के कारणों की तलाश के लिए अधिकारियों की बैठक ली जाएगी। गांव को फिर से आबाद कराने के लिए प्रयास किया जाएगा।
यहां देवता बसते हैं… इंसान नहीं
चौनी में साल में एक बार जीवन दौड़ता है। मान्यता है कि ग्रामदेवता व घर के देव भी पैतृक घरों में ही बसते हैं। इसी अटूट विश्वास के साथ हर साल गर्मियों में पलायन कर गए लोग देवताओं की पूजा करने के लिए लौटते हैं।आठ-दस दिनों के लिए गांव में रौनक रहती है। झाड़ियां काटी जाती हैं। रास्ते साफ होते हैं। पुराने घरों में खाना पकाने के लिए चूल्हे जलते हैं। फिर चौनी उसी खामोशी में डूब जाता है जहां दरवाजों पर लगे ताले धूप और बारिश में जंग खाते रहते हैं।
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