कश्मीर में सबसे ज्यादा वोट लेकर भी सीटों में पिछड़ गई भाजपा
नई दिल्ली। हरियाणा चुनाव नतीजों ने राजनीतिक पंडितों को ही नहीं, कांग्रेस को भी हैरान परेशान कर दिया है। शायद इसलिए पार्टी परिणामों को सहज रूप से स्वीकारने को तैयार नहीं है। मगर वास्तविकता यह है कि हरियाणा में अति आत्मविश्वास ने कांग्रेस की चुनावी रणनीति ऐसी बिगाड़ दी कि लगभग जीती बाजी मान रही पार्टी को कड़वी हार मिली है। अति आत्मविश्वास के कारण पार्टी का चुनावी खेल बिगड़ने का यह पहला उदाहरण नहीं है। पिछले एक वर्ष में हरियाणा समेत तीन राज्यों में पार्टी विजय की दहलीज से पराजय के पाले में गई है। पिछले वर्ष छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के चुनावों में हरियाणा जैसे अति आत्मविश्वास ने पार्टी की नैया डुबोई थी। उससे पहले उत्तराखंड के चुनाव में हरीश रावत के समय भी ऐसा ही नतीजा आया था। हरियाणा नतीजों से यह भी साबित हो गया कि चाहे कमलनाथ हों, अशोक गहलोत हों या भूपेंद्र सिंह हुड्डा, भूपेश बघेल हों या हरीश रावत पुराने दिग्गजों पर लगातार दांव लगाते रहना कांग्रेस के लिए भारी पड़ रहा है। कांग्रेस के हरियाणा में हुड्डा युग से बाहर निकलने के साहस की परख तो भविष्य में होगी, मगर परिणामों ने राज्य की सत्ता में हुड्डा के दौर की वापसी का रास्ता लगभग बंद कर दिया है।
किसान आंदोलन, अग्निवीर भर्ती और महिला पहलवानों से यौन उत्पीड़न के विवाद से गरमाए हरियाणा के माहौल में कांग्रेस ने किसान, जवान और महिला सुरक्षा-सम्मान को मुद्दा बनाते हुए चुनावी घोषणा से पहले ही भाजपा के विरुद्ध आक्रामक राजनीतिक विमर्श की बुनियाद रख दी। इसमें भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके सांसद बेटे दीपेंद्र हुड्डा की सबसे प्रमुख भूमिकाएं रहीं। कुमारी सैलजा और रणदीप सुरजेवाला को नेतृत्व को दौड़ से बाहर करने के लिए भूपेंद्र सिंह हुड्डा द्वारा तैयार की गई यह राजनीतिक रणनीति इस लिहाज से उनके हक में रही कि कांग्रेस नेतृत्व को भी यह भरोसा हो चला कि हरियाणा में सत्ता का ताला खोलने के लिए हुड्डा की चाभी ही चलेगी। इसका नतीजा ही रहा कि पार्टी हाईकमान ने चुनाव को सौ प्रतिशत हुड्डा के हवाले कर दिया और टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार अभियान के संचालन तक सब कुछ उनके नियंत्रण में इस तरह रहा कि सैलजा जैसी वरिष्ठ नेता लगभग घर बैठ गई। रणदीप सुरजेवाला कैथल में अपने बेटे के प्रचार अभियान तक ही सीमित रह गए। पार्टी के 89 उम्मीदवारों में से करीब 72 हुड्डा की पसंद के थे। कांग्रेस के अति आत्मविश्वास की बानगी इससे भी जाहिर होती है कि हुड्डा पर दांव लगाने का ही नतीजा रहा कि आम आदमी पार्टी (आप) के संग चुनावी तालमेल नहीं हो सका, जबकि राहुल गांधी आइएनडीआइए की एकजुटता का संदेश देने के लिए इसके पक्ष में थे। यदि यह गठबंधन हुआ होता तो शायद यह स्थिति नही होती।
लोकसभा चुनाव के बाद उत्साहित कांग्रेस के लिए दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम निराशाजनक रहे हैं। हरियाणा में पार्टी की सत्ता में वापसी की उम्मीदों पर पानी फिर गया। यही वजह है कि कांग्रेस अपनी इस हार को सहज स्वीकार करने को तैयार नहीं है। राज्य में कांग्रेस की इस हार के पीछे उसकी अंदरूनी खींचतान और अतिआत्मविश्वास को बड़ी वजह माना जा रहा है। वैसे भी पूरे चुनाव के दौरान राज्य में जिस तरह से मुख्यमंत्री पद के लिए पार्टी के बड़े नेताओं के बीच खींचतान देखने को मिली, वह भी पार्टी की इस हार के पीछे एक बड़ा कारण रहा है। जम्मू-कश्मीर का चुनाव नतीजा वैसे तो बिल्कुल भी अप्रत्याशित नहीं है, क्योंकि वहां पहले से नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन बढ़त बनाए हुए था।
भाजपा-कांग्रेस के बीच रहा जबरदस्त मुकाबला
हरियाणा में भाजपा ने भले ही जीत की हैट्रिक लगाई है, लेकिन वोट प्रतिशत में कांग्रेस और उसके बीच मुकाबला काफी कड़ा रहा। सुबह आठ बजे से शुरू हुई मतगणना के रुझानों से ही दोनों के बीच यह कड़ा मुकाबला देखने को मिला। अंतिम परिणामों में भाजपा को हरियाणा में जहां 39.90 प्रतिशत तो कांग्रेस को 39.10 प्रतिशत वोट मिले है। वोटों के लिहाज से दोनों के बीच यह हिस्सेदारी भले मामूली रही, लेकिन सीटों में दोनों के बीच बड़ा अंतर था।
जम्मू-कश्मीर में सबसे अधिक वोट लेकर भी पिछड़ गई भाजपा
जम्मू-कश्मीर का विधानसभा चुनाव भी कम रोचक नहीं था। मतगणना पूरी होने के बाद वोट प्रतिशत के लिहाज से भाजपा जहां राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई है। उसे सबसे अधिक 25.60 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि सीटों के लिहाज से नेशनल कांफ्रेंस को सबसे अधिक 42 सीटें मिली है। हालांकि उसका वोट प्रतिशत भाजपा के पीछे 23.47 प्रतिशत ही है। कांग्रेस को राज्य में करीब 12 प्रतिशत व पीडीपी को करीब नौ प्रतिशत ही वोट मिले हैं। यानी सभी दलों में भाजपा को सबसे अधिक वोट मिले हैं। यह बात अलग है कि राज्य में भाजपा 29 सीटों पर जीत दर्ज कर पाई। वैसे जम्मू-कश्मीर में भाजपा की स्थिति पहले से मजबूत हुई है और उसने 29 सीटें जीतीं।
बेशक आम आदमी पार्टी अकेले लड़कर कोई कमाल नहीं कर पाई लेकिन डेढ़ प्रतिशत वोट हासिल करना कांग्रेस के लिए नुकसान का सौदा रहा। चुनाव अभियान के दौरान सैलजा और सुरजेवाला सरीखे नेताओं के असंतोष के सुर्खियां बनने के बाद भी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को चुनाव में दरक रही जमीन का अंदाजा नहीं हुआ, क्योंकि हुड्डा लगातार पार्टी हाईकमान को जीत का भरोसा देते रहे।