समाज में मानवता को जीवित रखना है तो हिंदी को जीवित रखना होगा..!

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अपने मत को समाज के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए भाषा में संगठित प्रवाह आवश्यक होता है। विश्व की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा भारतीयों के हृदय में निवास करती है। विश्व के भाषा परिवारों में भारोपीय परिवार सर्वप्रमुख है, क्योंकि इसी वर्ग की एक प्रमुख भाषा हिंदी है। यह बहुविध भारतीय भाषाओं का अनूठा संगम है। इसमें अनेक बोलियां, यथा बांग्ला, उड़िया, असमिया, कोंकणी, अवधि, भोजपुरी, मगही, छत्तीसगढ़ी आदि सम्मिलित हैं।

किसी भी भाषा की सार्थकता तब दिखाई पड़ती है, जब उसका उपयोग सही तरीके से किया जाए। जिस भाषा का व्याकरण सहज होता है, वह भाषा आसानी से समझ आती है और तेजी से शिखर को प्राप्त करती है। व्यवहार में यह राष्ट्रभाषा अवश्य है, मगर देश के मध्य से दूर के कुछ लोगों के राजनीतिक स्वार्थों के कारण राज्यों द्वारा इसे राष्ट्रभाषा की मान्यता प्राप्त नहीं हो पाई।भाषा संस्कृति को परिभाषित करती है और भारतीय संस्कृति इसे पैर पसारने का पूरा मौका दे रही है। फिर भी यह व्यापक रूप से सफल नहीं हो पा रही है। अंग्रेजी के बोलबाला के चलते इसका वजूद धूमिल हुआ है, मगर यह खुद को सिद्ध करने के लिए समर्थ है। आज लोग हिंदी बोलते वक्त झिझक महसूस करते हैं।

इस झिझक का कारण पाश्चात्य संस्कृति का हावी हो जाना है। हिंदी भाषा महज राजनेताओं के हाथ का खिलौना बन कर रह गई है। कहीं आधिकारिक रूप से प्रयोग में राजनीति तो कहीं परीक्षा एजेंसियों पर दबाव। कहीं पाठ्यक्रम में सम्मिलित के लिए विपक्ष पर वार तो कहीं हिंदी दिवस पर भी मुंह न खुलना। इन सबके तपन के बावजूद हिंदी का वजूद कायम है।

हिंदी साहित्य की अनेक कथाएं आज भी लोगों के मन पर निवास करती हैं। न सिर्फ भारत में, बल्कि समूचे विश्व में हिंदी ने अपनी छाप छोड़ी है। कभी मन में चिंता, बेचैनी का भाव जागृत होता है तो हरिवंश की कविताएं मार्ग प्रशस्त करती हैं। जब बात शादी दहेज की होती है तो प्रेमचंद की ‘निर्मला’ सोच को बदल देती है। अगर समाज में मानवता को जीवित रखना है तो हिंदी को जीवित रखना होगा।