स्कूलों की अवैध वसूली का अंतहीन चक्र..!!

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संडे स्पेशल

शिक्षा, जो कि हर बच्चे का अधिकार है, आज एक व्यापारिक मॉडल में बदल गई है। निजी स्कूलों की बढ़ती फीस और अन्य अवैध वसूलियों ने अभिभावकों के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। यह लेख उसी दुश्चक्र की पड़ताल करता है।

शिक्षा की बढ़ती कीमत
शिक्षा की बढ़ती कीमतों ने गरीब अभिभावकों की कमर तोड़ दी है। जहां एक ओर शिक्षा को सभी के लिए सुलभ बनाने की बात की जाती है, वहीं निजी स्कूलों की महंगी फीस और छिपी हुई लागतें इस आदर्श को चुनौती देती हैं।

किताबों का कारोबार
पहले जहां बच्चे पुरानी किताबों से पढ़ाई कर लेते थे, वहीं अब हर साल कोर्स बदलने की प्रथा ने इसे असंभव बना दिया है। एक निर्धारित बुक सेलर से किताबें खरीदने की अनिवार्यता ने अभिभावकों की जेब पर और भी बोझ डाल दिया है।

परीक्षा शुल्क की पहेली
मासिक फीस के अलावा परीक्षा शुल्क के नाम पर अतिरिक्त वसूली एक और बड़ा सवाल खड़ा करती है। जब अभिभावक पहले ही शिक्षा के लिए भारी भरकम राशि चुका रहे हैं, तो यह अतिरिक्त शुल्क क्यों?

यूनिफॉर्म का युद्ध
यूनिफॉर्म के लिए भी एक विशेष दुकान से खरीदने की बाध्यता ने इसे एक और वित्तीय बोझ बना दिया है। इस प्रक्रिया में स्कूल और दुकानदार के बीच के कमीशन का खेल भी सामने आता है।

इवेंट्स का इकोनॉमी
स्कूलों में आयोजित होने वाले इवेंट्स के लिए भी अभिभावकों से अतिरिक्त धनराशि की मांग की जाती है। यह विद्यार्थियों के लिए एक शैक्षिक अनुभव होने के बजाय, एक वित्तीय बोझ बन जाता है।

शिक्षा के इस व्यापारीकरण ने न केवल अभिभावकों की जेब पर बोझ डाला है, बल्कि शिक्षा के मूल उद्देश्य को भी धूमिल कर दिया है। इस चक्र को तोड़ने के लिए नीतिगत सुधारों की आवश्यकता है, ताकि शिक्षा फिर से एक अधिकार बन सके, न कि एक विलासिता। अक्सर प्रदेशों के शिक्षा मंत्री एवं विभागीय अधिकारी बड़े जोर शोर से इन समस्याओं के समाधान की बात टीवी चैनल और अखबारों के माध्यम से करते रहते हैं। परन्तु उनकी आवाज़ संभवत सिक्कों की खनक या फिर दबाव के चलते पूरे सत्र के दौरान दोबारा सुनने को नहीं मिलती और एक और साल ऐसे ही बीत जाता है। सरकार बनाने वाली जनता/अभिभावक भी मन मसोस कर रह जाते हैं।

इस लेख का उद्देश्य एक गंभीर मुद्दा है जिसके समाधान की सख्त आवश्यकता है।

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