उत्तराखंड: नगर निकायों पर कब्जे के लिए दांवपेंच

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राज्य में निकायों का पांच वर्ष का कार्यकाल गत दिसंबर 2023 को समाप्त हो गया था। तब इस वर्ष की शुरुआत में होने वाले लोकसभा चुनाव के दृष्टिगत निकाय चुनाव टाल। दिए गए और इन्हें प्रशासकों के हवाले कर दिया गया। छह महीने में भी चुनाव न होने पर निकायें में प्रशासकों के कार्यकाल को तीन महीने की अवधि के लिए फिर बढ़ा दिया गया। इसके बाद गत 30 अगस्त को शासन ने नए बोर्ड के गठन तक निकायों के प्रशासकों के कार्यकाल को विस्तार दे दिया।

इस बीच निकाय चुनाव का मामला नैनीताल हाई कोर्ट में चला गया। हाई कोर्ट में सरकार ने कहा कि 25 अक्टूबर तक चुनाव करा लिए जाएंगे, लेकिन अलग-अलग कारणों से ऐसी स्थिति नहीं बन पाई। इसका एक कारण कुछ नगरों में वार्ड परिसीमन की व्यावहारिक कठिनाइयों का समाधान नहीं हो पाना था। यह कार्य तो सरकार ने तय समयावधि के भीतर करा दिया, लेकिन निकायों में ओबीसी आरक्षण का मसला अटका था। यद्यपि सरकार ने इसके लिए एकल सदस्यीय समर्पित आयोग की रिपोर्ट मिलने के बाद अध्यादेश के जरिये अधिनियम में संशोधन कर दिया था। अगस्त में ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में हुए विधानसभा के मानसून सत्र में सरकार ने यह अध्यादेश सदन में विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया। सत्तापक्ष के विधायकों ने निकायों में ओबीसी आरक्षण के कतिपय बिंदुओं पर आपत्ति जताई। इसके बाद निकायों में ओबीसी आरक्षण से संबंधित विधेयक को विधानसभा की प्रवर समिति को सौंप दिया गया, जिसे मंगलबार आठ अक्टूबर तक अपनी रिपोर्ट सौंपनी है।

सरकार ने इसी दौरान दो नगर पालिका परिषदों पिथौरागढ़ एवं अल्मोड़ा को नगर निगम बनाने का निर्णय ले लिया। साथ ही देहरादून नगर निगम सहित नौ निकायों में दोबारा परिसीमन कराया गया। राज्य निर्वाचन आयोग ने इन 11 नगर निकायों में मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण का कार्य करते हुए इसके लिए 16 अक्टूबर तक का समय निर्धारित किया, जिसके पास निकाय चुनाव कराने की जिम्मेदारी है। संभावना है कि तब तक प्रवर समिति भी विधानसभा को अपनी रिपोर्ट सौंप चुकी होगी। इसी कड़ी में सरकार ने अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि निकाय चुनाव संपन्न कराने के लिए जो भी प्रक्रिया शेष है, उसे अक्टूबर मध्य तक पूरा कर लिया जाए, ताकि अगले एक महीने में निकाय चुनाव संपन्न करा लिए जाएं।

राज्य में वर्तमान में कुल 11 नगर निगम, 45 नगर पालिका परिषद एवं 49 नगर पंचायत हैं। इनमें से तीन नगर पंचायतों बदरीनाथ, केदारनाथ एवं गंगोत्री में चुनाव नहीं होते। यूँ तो निकाय चुनाव स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा केंद्रित होते हैं, लेकिन छोटा राज्य होने के कारण उत्तराखंड में इसकी अपनी अहमियत है। विशेषकर नगर निगम और अपेक्षाकृत बड़ी नगर पालिका परिषदों में राजनीतिक दलों का प्रदर्शन उनकी धरातल पर पकड़ का पैमाना माना जाता है।

भाजपा वर्ष 2014 के बाद से राजनीतिक रूप से राज्य में अत्यंत मजबूत होकर उभरी है। लगातार दो विधानसभा चुनावों में जोरदार जीत के साथ ही तीन लोकसभा चुनावों में शत-प्रतिशत सफलता भाजपा को मिली है। इस अवधि में हुए दो निकाय चुनावों में भी स्वाभाविक रूप से भाजपा ही प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ी। इसके ठीक उलट कांग्रेस में वर्ष 2014 से टूट की प्रक्रिया आरंभ हुई, जो अब तक भी जारी है। कभी कई बड़े क्षत्रपों वाली कांग्रेस आज नेतृत्व की कमी से जूझ रही है। लगातार कई पराजय ने पार्टी नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक को हताशा में डाल दिया है।

हां, इतना अवश्य है कि लंबे समय बाद एक साथ दो विधानसभा सीटों के उप चुनाव जीतकर कांग्रेस स्वयं को थोड़ा बेहतर महसूस कर रही है। पार्टी नेताओं को अब लग रहा है कि कुछ समय पहले हुए बदरीनाथ एवं मंगलौर उपचुनाव की तरह वे केदारनाथ सीट के उपचुनाव में भी भाजपा को पटखनी दे सकते हैं। यही सोच कांग्रेस नेताओं की निकाय चुनाव को लेकर भी है। राज्य में पिछले सात वर्षों से भाजपा सत्ता में है तो कांग्रेस की रणनीति निकाय चुनाव में उसके खिलाफ इस अवधि में उपजी एंटी इनकंबेंसी को भुनाने की है। इस के दृष्टिगत पार्टी ने बड़े निकायों यानी नगर निगमों पर ध्यान केंद्रित किया है। वहां के तमाम सवालों को लेकर कुछ नेता मुखर हैं, लेकिन भाजपा भी इन प्रश्नों की काट करने में पीछे नहीं है। कुल मिलाकर दोनों ही प्रमुख दलों भाजपा एवं कांग्रेस ने अपनी जमीनी तैयारियों को अंतिम रूप देना शुरू कर दिया है। जिस तरह का वातावरण बन रहा है, उससे निकाय चुनावों में दोनों के मध्य रोचक जंग देखने को मिल सकती है, इस पर सबकी नजरें टिकी हैं।